Thursday, February 15, 2024

कणिक की कूटनीति

 Read in English after the Hindi version 

कणिक की कूटनीति




युवराजों की शिक्षा पूर्ण होने के पश्चात एक दिन महाराज धृतराष्ट्र ने शुभ मुहूर्त देखकर पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर को उनके गुणों को देखते हुए युवराज नियुक्त कर दिया। अर्जुन और भीम की अगुआई में पाण्डवों ने सौवीर और यवन जैसे देशों को भी हस्तिनापुर साम्राज्य के अंतर्गत सम्मिलित कर लिया। पाण्डवों की इस प्रकार बढ़ती कीर्ति से धृतराष्ट्र को उनसे ईर्ष्या होने लगी और अपने इस शंका को लेकर परामर्श करने के लिये उन्होंने अपने मंत्री कणिक को बुलाया। कणिक अत्यंत ही चतुर और कूटनीति में पारंगत था। महाराज धृतराष्ट्र और मंत्री कणिक का यह संवाद कणिक की कूटनीति के नाम से विख्यात है।

कणिक को अपने पास बुलाकर राजा धृतराष्ट्र ने कहा, “मंत्रिवर! पाण्डवों की दिनों-दिन उन्नति और सर्वत्र ख्याति हो रही है। इस कारण मुझे उसने ईर्ष्या होने लगी है और मुझे रातों को नींद भी नहीं आती है। कणिक! तुम सोच-समझकर बताओ कि मुझे उनसे मिलकर रहना चाहिये या उनसे शत्रुता करनी चाहिये?”

महाराज का प्रश्न सुनकर कणिक मुस्कराया और हाथ जोड़कर बोल, “महाराज! मैं इस विषय में अपने विचार आपके सामने रखता हूँ। आप मुझपर क्रोध किये बिना मेरी बात सुनिये।”


कणिक ने इस प्रकार धृतराष्ट्र से अनुमति लेकर अपनी बात आगे कही, “राजा को सर्वथा दण्ड देने के लिये तत्पर रहना चाहिये और सदा ही अपना पराक्रम दिखाना चाहिये। राजा अपनी दुर्बलता को छिपाकर रखे और शत्रुओं की दुर्बलता पर सदा दृष्टि रखे। शत्रु की दुर्बलता का पता चलने पर उन पर आक्रमण कर दे। जो राजा सदा दण्ड देने को तत्पर रहता है प्रजाजन उससे डरते हैं और उसकी आज्ञा का पालन करते हैं, इसलिए राजा को सभी कार्य दण्ड से सिद्ध करने चाहिये।”


“जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों की रक्षा करता है, उस प्रकार राजा भी अपने सभी अंगों - राजा, मंत्री, राष्ट्र, दुर्ग, कोष, बल और मित्र की रक्षा करे और अपनी कमजोरी को छिपाये रखे। यदि कोई कार्य प्रारंभ कर दिया है तो उसे बीच में ही न छोड़े, क्योंकि शरीर में चुभा हुआ कांटा यदि पूरा नहीं निकाला जाए तो कई दिनों तक कष्ट देता रहता है।”


“राजा को अपना अनिष्ट करने वाले शत्रुओं का अंत कर देना ही उचित है। पराक्रमी शत्रु पर आपत्ति आने पर उसका संहार कर देना चाहिये और ऐसे समय में सम्बंध या सौहार्द इत्यादि का विचार नहीं करना चाहिये। शत्रु यदि दुर्बल भी हो तो उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये। जैसे थोड़ी सी आग भी ईंधन मिलने पर समस्त वन को जला सकती है, उसी प्रकार दुर्बल शत्रु भी समय आने पर विनाशकारी बन सकता है।”


“स्वयं दुर्बल होने पर अंधा-बहरा बन जाना चाहिये और अपने शत्रु के दोषों को अनदेखा और अपनी निन्दा को अनसुना कर देना चाहिये। ऐसे में शत्रु के समक्ष दीन-हीन दिखो और शिकारी के समान नींद का बहाना कर मृग के समान शत्रु को आश्वस्त कर उचित समय आने पर उसका अन्त कर देना चाहिये।”


“शरणागत पर दयाभाव दिखाकर उसे छोड़ देना अनुचित है, ऐसे शत्रु से सदा ही भय बना रहता है। जो सहज शत्रु हैं उनको मुँहमाँगी वस्तु देकर विश्वास में लेकर मार देना चाहिये। जो शत्रु पहले आपको कष्ट देता हो और अब सेवक बन गया हो, उसे भी नहीं छोड़ना चाहिये।शत्रुपक्ष के त्रिवर्ग (तीन प्रकार की शक्तियां - ऐश्वर्य, उत्साह और मंत्रणा), पंचवर्ग (पाँच प्रकृतियाँ - मंत्री, राष्ट्र, दुर्ग, कोष और सेना) तथा सप्तवर्ग (शत्रु को वश में करने वाले सात साधन - साम, दान, भेद, दण्ड, आकर्षण, विष और अग्नि) का सर्वथा नाश कर देना चाहिये। शत्रुपक्ष को जड़ से समाप्त कर उसके संबंधियों और सहायकों का भी अंत कर देना चाहिये।”


“राजा को अपने शत्रुओं की गतिविधियों की सदा जानकारी रखनी चाहिये और अपनी बातों को गुप्त रखना चाहिये।”


“कार्यसिद्धि के लिये सदाचार इत्यादि का सहारा लेना चाहिये। समय अनुकूल न होने पर शत्रु को कंधे पर ढोना भी पड़े तो ढोये परंतु अनुकूल समय आने पर उसे बिल्कुल भी नहीं छोड़ना चाहिये।”


“डरपोक को भय दिखाकर, शूरवीर के समक्ष विनम्र बनकर, लोभी को धन देकर और बराबर वाले तथा कमजोर शत्रु को पराक्रम से वश में करना चाहिये।”


“पुत्र, मित्र, भाई, पिता अथवा गुरु - कोई भी क्यों न हों, यदि वह शत्रु के स्थान पर आ जायँ तो उन्हें वैभव चाहने वाला राजा अवश्य नष्ट कर दे। विष देकर या आग से जलाकर धोखे से भी शत्रु को मारने में कोई बुराई नहीं है।”


“राजा के मन में यदि क्रोध भी हो तो भी ऊपर से मुस्कुराकर बात करे, कभी भी क्रोध में किसी का तिरस्कार न करे। शत्रु पर प्रहार करने से पहले और प्रहार करते समय भी उससे मीठे वचन बोले तथा उसके मरने पर शोक करे और विलाप करे।”


“राजा शत्रु के साथ अच्छा व्यवहार कर उसके मन में अपने लिये विश्वास पैदा करे और जैसे ही वह अपने मार्ग से विचलित हो उस पर प्रहार करे। इस प्रकार सदाचार का ढोंग करने से अपराध करने वाले का दोष वैसे ही छिप जाता है जैसे काले मेघों के पीछे आकाश।”

“जिसे शीघ्र समाप्त करना हो, उनके घर में आग लगा दो। धनहीन, नास्तिकों और चोरों को अपने राज्य में न रहने दो।”

“शत्रु के साथ मोहक व्यवहार करे और उसके प्रति अच्छे बर्ताव से उसे अपने वश में कर ले। समय आने पर अपने लाभ के लिए उसे मारने में संकोच न करे और उसे ऐसे नष्ट करे कि फिर से सर न उठा सके।”

“जिनसे भय न हो उनसे भी चौकन्ना रहे और जिनसे भय हो उनसे तो सभी प्रकार से सावधान रहे। जिनसे खतरे की आशंका नहीं होती ऐसे लोग समय आने पर विकट हानि पहुँचा सकते हैं।”

“जो विश्वास के योग्य नहीं हैं उनपे कभी विश्वास न करे और जो विश्वासपात्र हैं भी उन पर अति विश्वास न करे, क्योंकि अधिक विश्वास से उत्पन्न होने वाला खतरा राजा का जड़ से विनाश कर सकता है।”

भली भाँति जाँच परखकर अपने और शत्रु के राज्य में गुप्तचर नियुक्त करे। शत्रु के राज्य में ऐसे गुप्तचर नियुक्त करे जो साधारण दिखने वाले और वेश बदलने में निपुण हों।”

“उद्यान, भूमने-फिरने के स्थान, देवालय, मदिरालय, कुएँ, हाट, घाट इत्यादि स्थान जहाँ भीड़ इकट्ठी होती हो वहाँ अपने गुप्तचरों को नियुक्त करे।”

“राजा बातचीत में अत्यंत विनयशील हो परंतु हृदय चाकू के सामन तीखा होना चाहिए। अत्यंत भयानक कर्म करने को तत्पर होने पर भी मुस्कुराकर बात करे।”

“अवसर देखकर हाथ जोड़ना, पैर छूना, शपथ खाना, आश्वासन देना, आशा बँधाना - ये सब राजा को करना चाहिए।”

“राजा ऐसे वृक्ष के समान हो जिसमें फूल तो हों परंतु फल न हों, अर्थात अपनी बातों से लोगों को लाभ की आशा दिलाये परंतु उसकी पूर्ति न करे। फल लगने पर भी उन्हें प्राप्त करना कठिन हो, अर्थात लोगों के काम पूरे करने में देरी करे। उस पर लगा कच्चा फल भी देखने में पके से समान हो, अर्थात लोगों की दुराशाओं को पूर्ण न होने दे। कभी स्वयं जीर्ण न होने दे, अर्थात दूसरों के पोषण में खुद की हानि न करे।”

“धर्म, अर्थ और काम इन तीनों के सेवन में पड़ने वाली बाधाओं से राजा को बचना चाहिये और इनसे मिलने वाले फल को भोगने का प्रयत्न करना चाहिये।”

“राजा अपने हृदय से अहंकार निकाल दे। चित्त को एकाग्र रखे। सब से मधुर बोले। दूसरों की कमियाँ लोगों को न बताये। सब विषयों पर दृष्टि रखे और विद्वान लोगों के साथ मंत्रणा करे।”

“संकट की अवस्था में कोमल या भयंकर जैसे भी सही उससे निकलने का प्रयत्न करना चाहिये। संकट से उबरने के बाद धर्म के विषय में सोचना चाहिये। अर्थात संकट के समय धर्म को ध्यान में न रखते हुए उससे उबरने के लिए जो भी बन पड़े करना चाहिये।”

“जो शोक से ग्रस्त हों उन्हें पुरानी बातें बताकर सांत्वना दे या फिर भविष्य में लाभ की आशा दिलाकर शांत करे।”

“जैसे पेड़ के ऊपर सोया हुआ मनुष्य उससे गिरकर होश में आता है, वैसे ही शत्रु के साथ संधि कर निश्चिंत हो जाने वाला राजा शत्रु से धोखा खाकर ही सचेत होता है।”

“राजा कभी दूसरों के दोष लोगों के सामने न बताये और अपनी बातें सदा गुप्त रखे।”

“दूसरों को दुःख दिये बिना, अत्यंत क्रूर कर्म किये बिना और बहुतों के प्राण लिये बिना राजा संपत्ति अर्जन नहीं कर सकता है।”

“जब शत्रु की सेना दुर्बल, रोगग्रस्त, जल या कीचड़ में फँसी हुई, भूख-प्यास से व्याकुल या सब ओर से आश्वस्त हो शान्त पड़ी हो, उस समय उस पर प्रहार करना चाहिए।”

“धनवान मनुष्य दूसरे धनी के पास नहीं जाता। बिना स्वार्थ के कोई मैत्री निभाने का प्रयास नहीं करता। इसलिए अपने द्वारा सिद्ध होने वाले दूसरों के कार्यों को अधूरा छोड़ देना चाहिये जिससे उस स्वार्थ सिद्धि के कारण उनका आना-जाना लगा रहे।”

“राजा की योजना का पता मित्र या शत्रु को उसके आरंभ या सम्पूर्ण होने पर ही पता चले, पहले से नहीं।”

“जब तक अपने ऊपर संकट न आया हो तब तक उससे डरकर उसे टालने का प्रयास करना चाहिये, परंतु संकट सामने आने पर निडर होकर उसका सामना करना चाहिये।”

“जो मनुष्य दण्ड द्वारा वश में किये गए शत्रु पर दया करता है वह अपनी मृत्यु को ही अपनाता है।”

“किसी भी कार्य को करने से पहले बुद्धि से विचार कर देश और काल को ध्यान में रखकर आगे बढ़ना चाहिये।”

“छोटे शत्रु की उपेक्षा करने से वह ताड़ के पेड़ की तरह अपनी जड़ें जमा लेता है और घने वन में छोड़ी गई आग शीघ्र ही महा विनाशकारी हो जाती है।”

“जो मनुष्य थोड़ी-सी आग की भाँति अपने-आपको समृद्ध करता रहता है वह एक दिन बहुत बाद होकर बड़े शत्रु को भी ग्रास बना सकता है।”

“यदि किसी को किसी बात की आशा दें तो उसे शीघ्र पूरी न कर दीर्घकाल तक टाल दें। जब उसे पूर्ण करने का समय आए तो उसे कोई विघ्न डालकर आगे बढ़ा दें। और उस विघ्न का कुछ उपयुक्त कारण बता दें।”

“लोहे का चाकू शान पर चढ़ाकर तेज किया जाता है और चमड़े के संपुट (pouch) में छिपाकर रखा जाता है। उसी प्रकार राजा को अपना मनोभाव छिपाकर अनुकूल अवसर आने पर निर्दय होकर शत्रु के प्राण ले लेने चाहिये।”

कुरुश्रेष्ठ आप भी इस नीति का पालन करते हुए पाण्डवों के साथ यथोचित व्यवहार करें परंतु ऐसा कुछ न करें जिससे स्वयं को हानि हो। आपके भतीजे बहुत बलवान हैं, इसलिए ऐसा करिए जिससे आपको आगे चलकर पछताना न पड़े।

कणिक के साथ इस विचार विमर्श के पश्चात ही धृतराष्ट्र ने दुर्योधन, शकुनि और कर्ण की पाण्डवों को वारणावत भेजकर लाक्षागृह में आग में जला देने के षड्यन्त्र को अपनी सहमति प्रदान की थी।

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Kanika's Diplomacy

 One day after the completion of the education of the princes, King Dhritarashtra, seeing the auspicious time, appointed Pandu's son Yudhishthir as the crown prince considering his qualities. Under the leadership of Arjun and Bhima, the Pandavas also included countries like Sauvira and Yavana under the Hastinapur Empire. Due to this increasing fame of Pandavas, Dhritarashtra became jealous of them and he called his minister Kanik for advice regarding his doubt. Kanik was very clever and adept at diplomacy. This dialogue between Maharaj Dhritarashtra and Minister Kanik is famous by the name of Kanik's Diplomacy.


 Calling Kanika to himself, King Dhritarashtra said, “Minister! Pandavas are progressing day by day and becoming famous everywhere. Because of this, I have become jealous of her and I don't even sleep at night. Particle! Please think carefully and tell me whether I should live with them or be hostile to them?”


 Hearing Maharaj's question, Kanik smiled and folded his hands and said, “Maharaj! I present my views to you on this subject. You listen to me without getting angry at me.”


 Thus, taking permission from Dhritarashtra, Kanik further expressed his views, “The king should always be ready to punish and should always show his bravery. The king should keep his weaknesses hidden and always keep an eye on the weaknesses of his enemies. When you find out the weakness of the enemy, attack them. The subjects fear a king who is always ready to punish and obey his orders, hence the king should accomplish all his tasks through punishment.”


“Just as a tortoise protects its limbs, so should a king protect all his limbs – the king, the ministers, the nation, the fort, the treasury, the forces and the friends, and hide his weaknesses. If you have started any work, do not leave it midway, because if the thorn stuck in the body is not completely removed, it continues to hurt for many days.

 “It is right for the king to destroy his enemies who are causing him harm. When a mighty enemy faces any objection, he should be destroyed and at such a time one should not think about relations or harmony etc. Even if the enemy is weak, he should not be ignored. Just as even a small fire can burn an entire forest when given fuel, similarly even a weak enemy can become destructive in time.”

 “When you yourself are weak, you should become blind and deaf and should ignore the faults of your enemy and ignore your criticism. In such a situation, look helpless in front of the enemy and pretend to be sleepy like a hunter, reassure the enemy like a deer and then end him at the right time.”

 “It is unfair to show mercy to the refugee and leave him, there is always fear from such an enemy. Those who are natural enemies should be killed by giving them a desired thing and taking them into confidence. The enemy who earlier gave you trouble and has now become your servant, should not be abandoned. Trivarga (three types of powers - opulence, enthusiasm and advice), Panchavarga (five natures - minister, nation, fort, treasure and army) of the enemy. ) and Saptavarga (seven means of subduing the enemy - Sama, Daan, Bheda, Dand, Charm, Poison and Agni) should be completely destroyed. After rooting out the enemy, its relatives and helpers should also be eliminated.”

The king should always be aware of the activities of his enemies and should keep his words secret.”

 “To achieve success, one should take help of good conduct etc. If the time is not favorable, even if you have to carry the enemy on your shoulders, carry him, but when the time is favorable, you should not leave him at all.”

 “The coward should be intimidated, the brave should be humble, the greedy should be given wealth and the equal and weak enemy should be subdued with bravery.”

 “Whoever it may be, son, friend, brother, father or teacher, if he comes to the enemy's place, he will surely be destroyed by a king seeking glory. There is no harm in killing the enemy even by deception, by poisoning or by burning him with fire.”

 “Even if the king is angry, he should still speak with a smile and never insult anyone in anger. Before attacking the enemy and while attacking, speak sweet words to him and mourn and mourn his death.”

“The king should treat the enemy well and create confidence in his mind and attack him as soon as he deviates from his path. In this way, by pretending to be virtuous, the guilt of the criminal becomes hidden just like the sky behind dark clouds.”

 “Whoever wants to be eliminated quickly, set fire to their house. Do not allow the moneyless, atheists and thieves to live in your kingdom.”

 “Behave charmingly with the enemy and bring him under your control by being nice to him. When the time comes, do not hesitate to kill him for your own benefit and destroy him in such a way that he cannot raise his head again.”

 “Be cautious even of those whom you do not fear, and be cautious in every way against those whom you fear. “People who are not aware of any danger can cause serious harm when the time comes.”

 “Never trust those who are not worthy of trust and do not trust too much even those who are trustworthy, because the danger arising from too much trust can completely destroy the king.”

 After thorough investigation, appoint spies in your kingdom and in the enemy's kingdom. “Appoint such spies in the enemy’s kingdom who are ordinary looking and adept at disguising themselves.”

 “Appoint your spies in gardens, places of recreation, temples, taverns, wells, markets, ghats etc., where crowds gather.”

 “The king should be very polite in conversation but his heart should be as sharp as a knife. “Speak with a smile even when you are ready to commit a terrible act.”

The man who keeps enriching himself like a little fire can, after a very long time, consume even a big enemy.”

 “If you give someone hope for something, do not fulfill it quickly and postpone it for a long time. When the time comes to complete it, move it forward by creating some obstacle. And give some suitable reason for that disturbance.”

 “An iron knife is mounted on a mount and sharpened and kept hidden in a leather pouch. Similarly, the king should hide his feelings and when the opportune moment comes, he should be ruthless and take the life of his enemy.”

 O Kurushrestha, you also follow this policy and behave appropriately with the Pandavas, but do not do anything that may cause harm to yourself. Your nephews are very strong, so do this so that you do not have to regret in future.

 It was only after this discussion with Kanika that Dhritarashtra gave his consent to the conspiracy of Duryodhana, Shakuni and Karna to send the Pandavas to Varanavat and burn them in the fire of Lakshagriha.

 If you liked this formula then share it with as many people as possible.

 “Whenever sees an opportunity, a king should fold his hands, touch his feet, take an oath, give assurance, give hope – all these things should be done by the king.”

Courtesy My Sutradhar on X

 https://twitter.com/MySutradhar/status/1755139458976882831?t=djmeTJu5WQkrG6SBEpRccQ&s=19

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